आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या मनुष्य सचमुच सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ? क्या मनुष्य सचमुच सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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क्या मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ?.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बुद्धिमत्ता मात्र मनुष्य की बपौती नहीं
वह क्षण निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा होगा, जब मनुष्य ने अपने आपको
सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार पाल लिया। क्योंकि इस स्थिति में मनुष्य ने
विश्व-वसुधा के, सृष्टि-परिवार के अन्यान्य प्राणियों को हीन और हेय मान
लिया। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझने की अहमन्यता मनुष्य में किसी भी
कारण से विकसित हुई हो, लेकिन यह सत्य है कि उसने अपने इस पूर्वाग्रह से
प्रेरित होकर निरीह प्राणियों का शोषण और मनचाहा उत्पीड़न किया। अपनी
अहंमन्यता को उसने संसार के दूसरे प्राणियों पर जिस ढंग से थोपा उनकी
प्रतिक्रिया-परिणति स्वयं उसके लिये ही उल्टा सिद्ध हुआ है। जो दाँव उसने
मनुष्येतर प्राणियों पर चलाया था, वह धीरे-धीरे उसके स्वभाव का अंग बन गया
और अब वह यही प्रयोग अपनी जाति पर भी अपनाने लगा है। परिणाम यह हो रहा है
कि मानवीय संवेदना धीरे-धीरे घटती जा रही है तथा वैयक्तिक सुख-स्वार्थ के
लिए शोषण और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। इस स्थिति को व्यक्ति-व्यक्ति के
बीच, जातियों, समुदायों, और विभिन्न राष्ट्रों के बीच खींचतान के रूप में
स्पष्ट देखा जा सकता है।
होना यह चाहिए था कि मनुष्य अपनी सर्वश्रेष्ठता की अहंमन्यता नहीं पालता और सभी प्राणियों को जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता। उनकी अनंत क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता। कदाचित् ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही होती। वह अपने सहचर पशु पक्षियों को देखता, यह जानता कि प्रकृति ने उन्हें भी कितने लाड़-दुलार से सजाया सवारा है, तो उसका हृदय और भी विशाल बनता तथा चेतना का स्तर ऊँचा उठता। इस स्थिति में प्रतीत होता कि अभागे कहे जाने वाले इन जीवों को भी प्रकृति से कम नहीं, मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक ही उपहार मिले हैं। यही नहीं, अन्य कई क्षेत्रों में भी अन्य प्राणियों से पीछे है।
अंतत: मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का आधार तो यही माना जा सकता है कि उसमें बुद्धि एवं विवेक का तत्त्व विशेष है। उसमें कर्तव्य परायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहृदयता तथा संवेदनशीलता के गुण पाए जाते हैं। किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है जब सृष्टि के अन्य प्राणियों में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्णरूप से क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करे। यद्यपि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं, तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है।
शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंस, गिद्ध, शतुरमुर्ग, मगर, मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, नभचर और जलचर जीव परमात्मा की इस सृष्टि में पाए जाते हैं, जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं। मछली जल में जीवन भर तैर सकती है। पक्षी दिन-दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं। क्या मनुष्य इस विषय में उनकी तुलना कर सकता है ? परिश्रमशीलता के संदर्भ में हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल, भैंस आदि उपयोगी तथा घरेलू जानवर जितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता। जबकि इन पशुओं तथा मनुष्यों के जीवन में बड़ा अन्तर होता है।
पशु-पक्षियों के समान स्वावलंबी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता। पशु-पक्षी अपने जीवन तथा जीवनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहते। वे जंगलों, पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार खोज लेते हैं। उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शक की जरूरत रहती है और न किसी संकेतक की। पशु-पक्षी स्वयं एक दूसरे पर भी इस संबंध में निर्भर नहीं रहते। अपनी रक्षा तथा आरोग्यता के उपाय भी वे बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में पशु-पक्षियों जैसा स्वावलंबन मनुष्यों में कहाँ पाया जाता है ? यहाँ तो मनुष्य एक दूसरे पर इतना निर्भर है कि यदि वे एक दूसरे की सहायता न करते रहे तो जीना ही कठिन हो जाए।
जन्म के समय मनुष्य पशु से अधिक बेहतर स्थिति में नहीं होता। पोषण एवं संरक्षण की तुरंत व्यवस्था न बने तो अधिक समय तक जीवित रहना मानव शिशु के लिए कठिन हो जाएगा। नौ मास के पूर्व तो वह अपने पैरों न तो चल सकता है और न ही अपने हाथों आहार ग्रहण कर पाता है। वह माता-पिता पर पूर्णत: आश्रित होता तथा उनकी ही कृपा पर जीवित रहता है। शरीर की दृष्टि से पशु अधिक समर्थ होते हैं। जन्म के कुछ ही घंटे बाद अपने आप आहार ढूँढ़ने लगते हैं। समर्थ, बुद्धिमान, विचारवान तो मनुष्य प्रशिक्षण-शिक्षण के आधार पर बनता है। उसका अवसर न मिले, ज्ञानार्जन के लिए समाज का संपर्क न प्राप्त हो, तो मनुष्य की स्थिति पशुओं से अधिक न होगी।
कार्य कुशलता तथा अद्भुत मेधा शक्ति का आधार वह शिक्षा है जो उसे विभिन्न रूपों में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष माध्यमों से मिलती रहती है। मनुष्येतर विकसित जीवों को भी प्रशिक्षित किया जा सके तो वे अनेकों काम ऐसे कर सकते हैं, जिनके लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग अथवा मनुष्यों का उपयोग किया जाता है। प्रकृति ने मनुष्य जितनी तो नहीं, पर उन्हें भी काम चलाऊ बुद्धि दी है। जिसका प्रयोग वे अपने दैनंदिन कार्यों के लिए करते हैं। पर उनके सामान्य ढर्रे से अलग हटकर ऊँचे स्तर का काम भी लिया जा सकता है। श्रम के लिए परंपरागत रूप में कुछ पशुओं का उपयोग सदियों पूर्व से होता रहा है। उसमें कुछ नई कड़ियाँ दूसरे जीवों की भी जोड़ी जा सकती हैं। आवश्यकता इतनी भर है कि जीव-जंतुओं की सामर्थ्य को परखा तथा उनकी सांकेतिक भाषा को समझा जा सके तथा उसके आधार पर उनके शिक्षण की कुछ व्यवस्था बनाई जा सके।
बातचीत की कला में मनुष्य विशेष रूप से दक्ष है। यह उस भाषा का चमत्कार है जो मनुष्य को विरासत के रूप में अपने पूर्वजों से मिली है। बच्चे को भाषा का ज्ञान विशेष रूप से नहीं कराना पड़ता। परिवार के लोगों के संपर्क से ही वह सीख लेता है। हिन्दी भाषी परिवारों के बालक अंग्रेजी भाषी परिवारों के बालक अंग्रेजी तथा अन्य भाषी परिवारों के बालक पैतृक भाषा सहज ही सीख लेते हैं। बच्चे के माँ-बाप गूँगे तथा बहरे हों तथा उसे समाज का संपर्क न मिले, तो वह भी बोलना नहीं सीख सकेगा। देखा जाता है कि जो बच्चे सुन नहीं पाते, वे बोल भी नहीं सकते और अंतत: वह गूँगे हो जाते हैं। भाषा की जानकारी उन तक नहीं पहुँच पाती। संकेतों के आधार पर ऐसे बालक किसी तरह अपना काम चलाते हैं।
मनुष्येतर जीवों के पास भी भाषा की कोई विरासत नहीं है, पर वे वार्तालाप गूँगे व्यक्तियों की तरह सांकेतिक आभारों पर करते हैं। विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ देने के लिए अन्य जीव विभिन्न तरह की आवाजें करते हैं। चिड़ियाँ खतरे की सूचना देने के लिए एक तरह की तथा प्रसन्नता अभिव्यक्ति में दूसरी तरह की आवाज करती हैं।
कुत्ते के भौंकने में वार्तालाप छिपा होता है, जिसका प्रत्युत्तर दूसरे उसी भाषा में देते हैं। बंदर अपनी इच्छा को ध्वनियों में एवं अभिव्यक्तियों में दर्शाते हैं।
वर्षों पूर्व नोमचौम्सकी नामक एक विद्वान ने कहा था कि बोलना अन्य जीवों के लिए प्रकृति ने संभव नहीं बनाया है, अब वह कथन गलत सिद्ध हो चुका है। मनोवैज्ञानिकों को अब दूसरे जीवों के संपर्क-प्रशिक्षण में आशातीत सफलता मिली है। पक्षियों, कबूतरों, चिंपांजी, बंदरों, तोता, मैना तथा कुत्ते को सांकेतिक भाषा सिखाने में विशेष रूप से सफलता मिली है। शिक्षण की बात प्रारम्भ करने से पूर्व यह देखा जाए कि स्वयमेव उनमें वार्तालाप करने की क्षमता क्या है ? जिसकी हममें से बहुसंख्यक को जानकारी नहीं है।
वार्तालाप के अलग-अलग स्तर
यह सोचना गलत है कि मात्र मनुष्य ही वार्तालाप द्वारा संदेश संप्रेषण की क्षमता रखता है। पशु-पक्षी उससे भी आगे बढ़कर हैं। चिड़ियाँ तितलियों से बातें करती हैं, बाघ धारा प्रवाह बोलता है, चिंपांजी मुस्कारकर, टिड्डा अपने संगीत द्वारा तथा कीट पतंगे अपने रंग के माध्यम से अभिव्यक्ति करते हैं।
मकड़ियों का जाला एक प्रकार से ब्लैक बोर्ड पर लिखा गया संपूर्ण प्रतिवेदन है, जिसे अन्य जीव-जन्तु अपने हिसाब से डिकोड कर लेते हैं। अपनी रेशमी लिपि के माध्यम से मकड़ी अपना शिकार चुनती है एवं प्रणय हेतु साथी भी। इसके लिए वे अधिक समय नहीं लेती, मात्र 30 मिनट ही लेती हैं, वह भी ब्रह्म मुहूर्त में। वे चिंतन के द्वारा यह करती हैं। यह उन प्रयोगों से ज्ञान होता है जिनमें उन्हें नशीली दवाएं दी गईं व वे विचित्र प्रकार के बेढंगे जालें बुनती चली गईं।
टिड्डों की शब्द संपदा बारह शब्दों तक सीमित है। इसे वे बहुधा उपयोग न कर अवसर आने पर ही प्रयोग में लाते हैं। प्रणय काल के दौरान उनके संगीत में अलग-अलग नस्लों की सूक्ष्म पहचान देखी जा सकती है। ऐसा इसलिए कि एक नस्ल विशेष के नर टिड्डे के प्रणय संगीत पर कोई दूसरी मादा टिड्डा न आकर्षित हो सके। ये संगीत अपनी पिछली टांगों को पंखों पर रगड़ कर पैदा करते हैं। पंखों पर रगड़ से एक विशिष्ट स्वर लहरी जन्म लेती है, जो अन्य किसी कीट की या टिड्डे की नस्ल विशेष की नहीं होती।
संगीत में ऐंपलीट्यूड मॉड्यूलेटेड नाम से एक व्यवस्था होती है, जिसमें निश्चित आवृत्ति में निश्चित तरंगे नि:सृत होती हैं। टिड्डे जिन्हें ग्रासहापर कहते हैं, अपना संगीत विभिन्न लय-ताल में इसी व्यवस्था से पैदा करते हैं। संगीत के क्षेत्र में कीटों में टिड्डों का कोई मुकाबला नहीं।
होना यह चाहिए था कि मनुष्य अपनी सर्वश्रेष्ठता की अहंमन्यता नहीं पालता और सभी प्राणियों को जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता। उनकी अनंत क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता। कदाचित् ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही होती। वह अपने सहचर पशु पक्षियों को देखता, यह जानता कि प्रकृति ने उन्हें भी कितने लाड़-दुलार से सजाया सवारा है, तो उसका हृदय और भी विशाल बनता तथा चेतना का स्तर ऊँचा उठता। इस स्थिति में प्रतीत होता कि अभागे कहे जाने वाले इन जीवों को भी प्रकृति से कम नहीं, मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक ही उपहार मिले हैं। यही नहीं, अन्य कई क्षेत्रों में भी अन्य प्राणियों से पीछे है।
अंतत: मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का आधार तो यही माना जा सकता है कि उसमें बुद्धि एवं विवेक का तत्त्व विशेष है। उसमें कर्तव्य परायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहृदयता तथा संवेदनशीलता के गुण पाए जाते हैं। किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है जब सृष्टि के अन्य प्राणियों में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्णरूप से क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करे। यद्यपि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं, तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है।
शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंस, गिद्ध, शतुरमुर्ग, मगर, मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, नभचर और जलचर जीव परमात्मा की इस सृष्टि में पाए जाते हैं, जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं। मछली जल में जीवन भर तैर सकती है। पक्षी दिन-दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं। क्या मनुष्य इस विषय में उनकी तुलना कर सकता है ? परिश्रमशीलता के संदर्भ में हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल, भैंस आदि उपयोगी तथा घरेलू जानवर जितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता। जबकि इन पशुओं तथा मनुष्यों के जीवन में बड़ा अन्तर होता है।
पशु-पक्षियों के समान स्वावलंबी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता। पशु-पक्षी अपने जीवन तथा जीवनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर निर्भर नहीं रहते। वे जंगलों, पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार खोज लेते हैं। उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शक की जरूरत रहती है और न किसी संकेतक की। पशु-पक्षी स्वयं एक दूसरे पर भी इस संबंध में निर्भर नहीं रहते। अपनी रक्षा तथा आरोग्यता के उपाय भी वे बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में पशु-पक्षियों जैसा स्वावलंबन मनुष्यों में कहाँ पाया जाता है ? यहाँ तो मनुष्य एक दूसरे पर इतना निर्भर है कि यदि वे एक दूसरे की सहायता न करते रहे तो जीना ही कठिन हो जाए।
जन्म के समय मनुष्य पशु से अधिक बेहतर स्थिति में नहीं होता। पोषण एवं संरक्षण की तुरंत व्यवस्था न बने तो अधिक समय तक जीवित रहना मानव शिशु के लिए कठिन हो जाएगा। नौ मास के पूर्व तो वह अपने पैरों न तो चल सकता है और न ही अपने हाथों आहार ग्रहण कर पाता है। वह माता-पिता पर पूर्णत: आश्रित होता तथा उनकी ही कृपा पर जीवित रहता है। शरीर की दृष्टि से पशु अधिक समर्थ होते हैं। जन्म के कुछ ही घंटे बाद अपने आप आहार ढूँढ़ने लगते हैं। समर्थ, बुद्धिमान, विचारवान तो मनुष्य प्रशिक्षण-शिक्षण के आधार पर बनता है। उसका अवसर न मिले, ज्ञानार्जन के लिए समाज का संपर्क न प्राप्त हो, तो मनुष्य की स्थिति पशुओं से अधिक न होगी।
कार्य कुशलता तथा अद्भुत मेधा शक्ति का आधार वह शिक्षा है जो उसे विभिन्न रूपों में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष माध्यमों से मिलती रहती है। मनुष्येतर विकसित जीवों को भी प्रशिक्षित किया जा सके तो वे अनेकों काम ऐसे कर सकते हैं, जिनके लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग अथवा मनुष्यों का उपयोग किया जाता है। प्रकृति ने मनुष्य जितनी तो नहीं, पर उन्हें भी काम चलाऊ बुद्धि दी है। जिसका प्रयोग वे अपने दैनंदिन कार्यों के लिए करते हैं। पर उनके सामान्य ढर्रे से अलग हटकर ऊँचे स्तर का काम भी लिया जा सकता है। श्रम के लिए परंपरागत रूप में कुछ पशुओं का उपयोग सदियों पूर्व से होता रहा है। उसमें कुछ नई कड़ियाँ दूसरे जीवों की भी जोड़ी जा सकती हैं। आवश्यकता इतनी भर है कि जीव-जंतुओं की सामर्थ्य को परखा तथा उनकी सांकेतिक भाषा को समझा जा सके तथा उसके आधार पर उनके शिक्षण की कुछ व्यवस्था बनाई जा सके।
बातचीत की कला में मनुष्य विशेष रूप से दक्ष है। यह उस भाषा का चमत्कार है जो मनुष्य को विरासत के रूप में अपने पूर्वजों से मिली है। बच्चे को भाषा का ज्ञान विशेष रूप से नहीं कराना पड़ता। परिवार के लोगों के संपर्क से ही वह सीख लेता है। हिन्दी भाषी परिवारों के बालक अंग्रेजी भाषी परिवारों के बालक अंग्रेजी तथा अन्य भाषी परिवारों के बालक पैतृक भाषा सहज ही सीख लेते हैं। बच्चे के माँ-बाप गूँगे तथा बहरे हों तथा उसे समाज का संपर्क न मिले, तो वह भी बोलना नहीं सीख सकेगा। देखा जाता है कि जो बच्चे सुन नहीं पाते, वे बोल भी नहीं सकते और अंतत: वह गूँगे हो जाते हैं। भाषा की जानकारी उन तक नहीं पहुँच पाती। संकेतों के आधार पर ऐसे बालक किसी तरह अपना काम चलाते हैं।
मनुष्येतर जीवों के पास भी भाषा की कोई विरासत नहीं है, पर वे वार्तालाप गूँगे व्यक्तियों की तरह सांकेतिक आभारों पर करते हैं। विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ देने के लिए अन्य जीव विभिन्न तरह की आवाजें करते हैं। चिड़ियाँ खतरे की सूचना देने के लिए एक तरह की तथा प्रसन्नता अभिव्यक्ति में दूसरी तरह की आवाज करती हैं।
कुत्ते के भौंकने में वार्तालाप छिपा होता है, जिसका प्रत्युत्तर दूसरे उसी भाषा में देते हैं। बंदर अपनी इच्छा को ध्वनियों में एवं अभिव्यक्तियों में दर्शाते हैं।
वर्षों पूर्व नोमचौम्सकी नामक एक विद्वान ने कहा था कि बोलना अन्य जीवों के लिए प्रकृति ने संभव नहीं बनाया है, अब वह कथन गलत सिद्ध हो चुका है। मनोवैज्ञानिकों को अब दूसरे जीवों के संपर्क-प्रशिक्षण में आशातीत सफलता मिली है। पक्षियों, कबूतरों, चिंपांजी, बंदरों, तोता, मैना तथा कुत्ते को सांकेतिक भाषा सिखाने में विशेष रूप से सफलता मिली है। शिक्षण की बात प्रारम्भ करने से पूर्व यह देखा जाए कि स्वयमेव उनमें वार्तालाप करने की क्षमता क्या है ? जिसकी हममें से बहुसंख्यक को जानकारी नहीं है।
वार्तालाप के अलग-अलग स्तर
यह सोचना गलत है कि मात्र मनुष्य ही वार्तालाप द्वारा संदेश संप्रेषण की क्षमता रखता है। पशु-पक्षी उससे भी आगे बढ़कर हैं। चिड़ियाँ तितलियों से बातें करती हैं, बाघ धारा प्रवाह बोलता है, चिंपांजी मुस्कारकर, टिड्डा अपने संगीत द्वारा तथा कीट पतंगे अपने रंग के माध्यम से अभिव्यक्ति करते हैं।
मकड़ियों का जाला एक प्रकार से ब्लैक बोर्ड पर लिखा गया संपूर्ण प्रतिवेदन है, जिसे अन्य जीव-जन्तु अपने हिसाब से डिकोड कर लेते हैं। अपनी रेशमी लिपि के माध्यम से मकड़ी अपना शिकार चुनती है एवं प्रणय हेतु साथी भी। इसके लिए वे अधिक समय नहीं लेती, मात्र 30 मिनट ही लेती हैं, वह भी ब्रह्म मुहूर्त में। वे चिंतन के द्वारा यह करती हैं। यह उन प्रयोगों से ज्ञान होता है जिनमें उन्हें नशीली दवाएं दी गईं व वे विचित्र प्रकार के बेढंगे जालें बुनती चली गईं।
टिड्डों की शब्द संपदा बारह शब्दों तक सीमित है। इसे वे बहुधा उपयोग न कर अवसर आने पर ही प्रयोग में लाते हैं। प्रणय काल के दौरान उनके संगीत में अलग-अलग नस्लों की सूक्ष्म पहचान देखी जा सकती है। ऐसा इसलिए कि एक नस्ल विशेष के नर टिड्डे के प्रणय संगीत पर कोई दूसरी मादा टिड्डा न आकर्षित हो सके। ये संगीत अपनी पिछली टांगों को पंखों पर रगड़ कर पैदा करते हैं। पंखों पर रगड़ से एक विशिष्ट स्वर लहरी जन्म लेती है, जो अन्य किसी कीट की या टिड्डे की नस्ल विशेष की नहीं होती।
संगीत में ऐंपलीट्यूड मॉड्यूलेटेड नाम से एक व्यवस्था होती है, जिसमें निश्चित आवृत्ति में निश्चित तरंगे नि:सृत होती हैं। टिड्डे जिन्हें ग्रासहापर कहते हैं, अपना संगीत विभिन्न लय-ताल में इसी व्यवस्था से पैदा करते हैं। संगीत के क्षेत्र में कीटों में टिड्डों का कोई मुकाबला नहीं।
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